मंगलवार, 10 मई 2011

आओ लौट चले प्रकृति की ओर !

 आओ लौट  चले प्रकृति  की ओर!
कहाँ हिमखंडों का ढेला,
कहाँ नदियों का जल प्रवाह,
हो रहे वन भी कंगाल 
देखो ! कहाँ खिचीं जा रही जीवन की डोर,
आओ  लौट चले प्रकृति की ओर !
नष्ट हुए खेत खलिहान ,
नग्न हुई पर्वत श्रृंखलाएं,
तोड़ इन्हें, सड़क हुयी परवान,
सूखे जल स्रोत, 
और जल दायिनी  गंगा यमुना भी रुग्ण है 
 आए हम छोड़ इन्हें, चल पड़े न जाने किस ओर !
आओ लौट चले प्रकृति की ओर !
 जब हिम था, वर्षा थी, तो था अन्न- धन,  
अब सूख गए वृक्ष वनों के, आकुल हुआ मन,
सूखे जल स्रोत, देते हैं पीड़ा मन को प्रति पल,
कहाँ कलनिनाद है जल प्रपातों का, प्राणी है विकल !.


लुप्त प्रायः  है स्निग्ध जीवन धारा,
टूट गया है प्रकृति का मनोरम,
वायु शीतल नहीं, बढ़ रहा है पारा,
न जाने कौन खीच रहा  है,
अविरल विनाश की डोर ! 
आओ लौट चलें प्रकृति की ओर!